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इ॒मं स्तोमं॑ रोदसी॒ प्र ब्र॑वीम्यृदू॒दराः॑ शृणवन्नग्निजि॒ह्वाः। मि॒त्रः स॒म्राजो॒ वरु॑णो॒ युवा॑न आदि॒त्यासः॑ क॒वयः॑ पप्रथा॒नाः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imaṁ stomaṁ rodasī pra bravīmy ṛdūdarāḥ śṛṇavann agnijihvāḥ | mitraḥ samrājo varuṇo yuvāna ādityāsaḥ kavayaḥ paprathānāḥ ||

पद पाठ

इ॒मम्। स्तोम॑म्। रो॒द॒सी॒ इति॑। प्र। ब्र॒वी॒मि॒। ऋ॒दू॒दराः॑। शृ॒ण॒व॒न्। अ॒ग्नि॒ऽजि॒ह्वाः। मि॒त्रः। स॒म्ऽराजः॑। वरु॑णः। युवा॑नः। आ॒दि॒त्यासः॑। क॒वयः॑। प॒प्र॒था॒नाः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:10 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:25» मन्त्र:5 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जिस (इमम्) इस परमेश्वर (स्तोमम्) प्रशंसा करने योग्य और (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी के सदृश सम्पूर्ण विद्याओं से जानने योग्य प्रकाश और धारण करनेवाले का (मित्रः) सबका मित्र (वरुणः) श्रेष्ठ हम (प्र, ब्रवीमि) उपदेश देते हैं, उसको (ऋदूदराः) सत्य है हृदय में जिनके वे (सम्राजः) अच्छे प्रकार प्रकाशमान (अग्निजिह्वाः) अग्नि के सदृश प्रकाशमान सत्य के उपदेश देनेवाली जिह्वा है जिनकी वे (युवानः) युवा अवस्था को प्राप्त (आदित्यासः) सूर्य के सदृश पूर्ण विद्या से प्रकाशित (कवयः) तीव्र बुद्धि से युक्त (पप्रथानाः) प्रख्यात बुद्धिमान् लोग (शृणवन्) सुनो ॥१०॥
भावार्थभाषाः - जैसे चक्रवर्त्ती राजा अपनी आज्ञा से सम्पूर्ण न्याय को प्रकाशित करता है, वैसे ही यथार्थवक्ता विद्वान् लोग अध्यापन और उपदेश से परमेश्वर और उसकी आज्ञा को प्रसिद्ध करते हैं और जो लोग अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करके पूर्णविद्या युक्त हैं, वे ही इसके कहने सुनने निश्चय और अभ्यास करने और प्रत्यक्ष करने को समर्थ होते हैं ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

यमिमं स्तोमं रोदसी इव मित्रो वरुणोऽहं प्रब्रवीमि तमृदूदरा सम्राजोऽग्निजिह्वा युवान आदित्यासः कवयः पप्रथानाः शृणवन् ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इमम्) परमात्मानम् (स्तोमम्) प्रशंसनीयम् (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव सकलविद्यावेद्यं प्रकाशकं सर्वस्य धर्त्तारम् (प्र) (ब्रवीमि) उपदिशामि (ऋदूदराः) ऋत्सत्यमुदरे येषान्ते (शृणवन्) शृण्वन्तु (अग्निजिह्वाः) अग्निरिव प्रकाशमाना सत्योपदेशा जिह्वा येषान्ते (मित्रः) सर्वस्य सखा (सम्राजः) सम्यग्राजमानाः (वरुणः) श्रेष्ठः (युवानः) प्राप्तयुवावस्थाः (आदित्यासः) सूर्य इव पूर्णविद्याप्रकाशाः (कवयः) विक्रान्तप्रज्ञा मेधाविनः (पप्रथानाः) प्रख्याताः ॥१०॥
भावार्थभाषाः - यथा चक्रवर्त्ती राजा स्वाज्ञया सर्वं न्यायं प्रकाशितं करोति तथैवाऽऽप्ता विद्वांसोऽध्यापनोपदेशाभ्यां परमात्मानं तस्याज्ञां च प्रसिद्धां कुर्वन्ति। येऽष्टाचत्वारिंशद्वर्षपर्यन्तं ब्रह्मचर्यं कृत्वाऽखिलविद्या जायन्ते त एवैतद्वक्तुं श्रोतुं निश्चेतुमभ्यसितुं साक्षात्कर्त्तुं च शक्नुवन्ति ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसा चक्रवर्ती राजा आपल्या आज्ञेने संपूर्ण न्याय करतो तसेच यथार्थवक्ते विद्वान लोक अध्यापन व उपदेश करून परमेश्वराची आज्ञा प्रकट करतात व जे अठ्ठेचाळीस वर्षांपर्यंत ब्रह्मचर्य पाळून पूर्ण विद्यायुक्त बनतात तेच वचन, श्रवण, निश्चय व अभ्यास प्रत्यक्ष करण्यास समर्थ असतात. ॥ १० ॥